देश में लगभग 20 साल पहले, जब वन अधिकार कानून लागू किया गया, तो उसकी प्रस्तावना में सरकार ने लिखा कि औपनिवेशिक काल और स्वतंत्र भारत में राज्य द्वारा जंगलों का अधिग्रहण करते समय आदिवासियों के परंपरागत अधिकारों की अनदेखी की गई।
इसलिए इन समुदायों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ। इस कानून का उद्देश्य उस ऐतिहासिक अन्याय को सुधारना और उन्हें उनके कानूनी वन अधिकार देना है। लेकिन ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ़ का वन विभाग इस ऐतिहासिक अन्याय को जारी रखना चाहता है। छत्तीसगढ़ के 20,616 गांव में से लगभग आधे गांव आदिवासी बहुल हैं, जो अपनी आजीविका के साथ-साथ अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान के लिए पूरी तरह से जंगल पर आधारित हैं।
लेकिन अब छत्तीसगढ़ के वन विभाग ने 15 मई 2025 को एक पत्र जारी कर खुद वन अधिकार का नोडल एजेंसी बनने की घोषणा कर दी है। वन विभाग ने वन अधिकार कानून के उलट, ग्राम सभाओं व उनकी प्रबंधन समितियों द्वारा तैयार किसी भी प्रबंधन योजना को लागू करने पर रोक लगाने की घोषणा कर दी है। आप लाख दोहराते रहें कि वन अधिकार कानून में समुदाय आधारित वन प्रशासन का प्रावधान है, लेकिन वन विभाग के ताजा पत्र ने जैसे आदिवासी समुदाय को कूड़ेदान में डालने का मन बना लिया है। यह सब तब हो रहा है जब राज्य में आदिवासी मुख्यमंत्री हैं। दिलचस्प यह है कि छत्तीसगढ़ के वन विभाग ने सुप्रीम कोर्ट के 1995 के टी एन गोदावर्मन मामले का हवाला देते हुए अपने पत्र में दावा किया है कि देश भर में केवल वर्किंग प्लान आधारित वैज्ञानिक प्रबंधन ही मान्य होगा। छत्तीसगढ़ में वन विभाग ने चेतावनी दी है कि वन विभाग के अलावा कोई भी संस्था प्रबंधन कार्य न करे, जबकि वन अधिकार कानून के तहत वनों में ग्राम सभाएं ही सामुदायिक वन प्रबंधन का काम करती हैं और कोई भी सरकारी या गैर सरकारी संस्था केवल तकनीकी सहयोग दे सकती है।
लेकिन छत्तीसगढ़ वन विभाग का ताजा आदेश ग्राम सभाओं से सारे कानूनी अधिकार छीन कर उन्हें वन विभाग पर आश्रित कर देना चाहता है। एक क्षण के लिए मान लिया जाए कि देश भर में वर्किंग प्लान आधारित वैज्ञानिक प्रबंधन ही मान्य होगा, तो फिर राज्य के संरक्षित क्षेत्रों और वन विकास निगम पर अलग प्रबंधन ढांचे क्यों लागू हैं? वन विभाग ने अपने इस आदेश को 28 मई 2020 के छत्तीसगढ़ सरकार के वन अधिकार कानून से संबंधित एक निर्णय पर आधारित बताया है। लेकिन 28 मई 2020 के उस निर्णय का सच यह है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने 3 दिन के भीतर ही वह फैसला वापस ले लिया था। 28 मई 2020 को छत्तीसगढ़ सरकार ने एक आदेश जारी किया था, जिसमें वन विभाग को सामुदायिक वन संसाधन अधिकार को लागू करने वाला मुख्य नोडल विभाग बनाया गया, यानी स्वयं वन विभाग समुदाय के वन दावों की मान्यता प्रक्रिया का नेतृत्व कर सकता था। इस कदम का आदिवासी कार्यकर्ता, विशेषज्ञों और संगठनों ने कड़ा विरोध किया।
उनका कहना था कि यह निर्णय फॉरेस्ट राइट एक्ट की आत्मा के खिलाफ है, क्योंकि कानून के तहत सी एफ आर आर की मान्यता और कार्यान्वयन में वन विभाग की प्राथमिक भूमिका नहीं होनी चाहिए। विरोध और कानूनी आपत्तियों के बीच, छत्तीसगढ़ सरकार ने 1 जून 2020 को अपना आदेश पुनः संशोधित किया और कहा कि वन विभाग को नोडल एजेंसी नहीं, बल्कि केवल समन्वय यानी कॉर्डिनेशन का दायित्व दिया गया। इस संशोधित आदेश से सरकार ने स्पष्ट किया कि सी एफ आर आर की मान्यता प्रक्रिया में ग्राम सभाओं की मुख्य भूमिका बनी रहेगी और वन विभाग केवल प्रक्रिया को सुगठित करने में सहायक रहेगा।
लेकिन इस संशोधन से अनजान वन विभाग ने सरकार के 5 साल पुराने रद्द किए गए आदेश को ही अपने नए आदेश का आधार बना लिया। सरकार के इस फैसले से छत्तीसगढ़ में काम करने वाले जन संगठन नाराज हैं उनका आरोप है कि हाल के महीनों में छत्तीसगढ़ में हुई जबरन बेदखली और हजारों हेक्टेयर वन भूमि को कार्बन बाजार व खनन परियोजनाओं हेतु खोलने के प्रयास हुए हैं। ग्राम सभाओं को संसाधन प्रबंधन से अलग करने से वनों के कॉर्पोरेट नियंत्रण में जाने का खतरा दिखाई दे रहा है। देखिए, वन अधिकार मान्यता का छत्तीसगढ़ के जन संगठनों के विरोध के बाद वन विभाग ने अपने आदेश में फिर से संशोधन किया है, लेकिन आदिवासी संगठनों का कहना है कि वन विभाग का ताजा आदेश इसलिए है कि ग्राम सभाएं कमजोर हो जाएं और वन विभाग की अवैध कूप कटाई मोनोकल्चर।
स्टेशन आदि, मनमानी गतिविधियां बेरोकटोक चल सकें। जन संगठनों की मांग है कि छत्तीसगढ़ के ऐसे समस्त वन निर्भर गांव, जिनको सामुदायिक वन अधिकार नहीं मिले हैं, उन्हें धारा 3(1)(छ) में उल्लेखित सामुदायिक और संरक्षण का अधिकार, मान्य करते हुए, ग्राम सभा को वन क्षेत्र व संसाधन के प्रबंधन के लिए नियम 4(1)(ड़) के तहत सक्षम बनाया जाए। ग्राम सभाओं और JFMC द्वारा तैयार प्रबंधन एवं संरक्षण योजनाओं को बिना देरी मान्यता दी जाए तथा आवश्यक तकनीकी व वित्तीय समर्थन उपलब्ध कराया जाए। इसके अलावा, सामुदायिक वानिकी के समस्त कार्य ग्राम सभा में गठित सामुदायिक वन संसाधन समिति द्वारा कराए जाएं।
इसी तरह, जिलों में गठित कवर्जन समितियों में प्रबंधन में ग्राम सभा को सहयोग करने वाली अशासकीय संस्थाओं के सदस्य के रूप में शामिल किया जाए। यह समिति अन्य योजनाओं से निधि का प्रबंधन कार्यों के लिए अभिसरण हेतु अनुशंसा करेगी। जब तक संबंधित योजनाओं की निधि कन्वर्जेंस द्वारा ग्राम सभा में नहीं आती, तब तक महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के जरिए कम से कम 100 दिन का काम जंगल प्रबंधन के लिए ग्राम सभा को सौंपा जाए। यहां ग्राम सभा मुश्किल है कि छत्तीसगढ़ सरकार का वन विभाग वन अधिकार कानून को ठेंगा दिखाते हुए अपने फैसले पर अड़ा रहेगा या अपने फैसले को वापस लेगा। लेकिन अगर स्थितियां ऐसी ही बनी रहीं, तो इतना तो तय है कि राज्य के आदिवासी बहुल इलाकों में राज्य सरकार को भारी विरोध का सामना करना पड़ सकता है।