जगन्नाथ मंदिर की धार्मिक परम्पराएँ
बंगाल की खाड़ी का एक तटीय शहर भारी हुजूम उमड़ा हुआ है। जय जगन्नाथ के जयकारे आसमान में गूंज रहे हैं। खींचे जा रहे हैं तीन रथ ऐसे में एंट्री होती है एक सक्स की बिखरे हुए बाल अस्त व्यस्त कपड़े अपनी धुन में मगर। तीन में से एक रथ पर चढ़ने की कोशिश करता है। ये शख्स पुजारी ना सिर्फ उसे धक्का देते है, उसको कुछ बातें भी वहाँ पर सुना दी जाती है। झल्लाया हुआ वो शख्स समंदर की तरफ मुड़ता है और बनाता है रेत के तीन रथ। इसका परिणाम क्या होता है? परिणाम ये होता है कि तीनों असली रथ जाम हो जाते हैं। हाथियों, घोड़ों से खींचने के बावजूद रथ टस से मस नहीं होते। कहते हैं कि भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ आए और उन रेत के रथों में बैठ गए।
ये रथ बनाये थे भक्त बलराम दास ने। इन्हीं के बुलावे पर भगवान को अपनी ही रथ यात्रा रोकनी पड़ी। ऐसी मान्यता है। भले ही इसके ऐतिहासिक प्रमाण ना हो लेकिन रथ यात्रा के जरूर है भगवान जगन्नाथ का।
पूरा भरा पूरा इतिहास है। इस मंदिर का एक समृद्ध इतिहास है और इससे जुड़े है तमाम किस्से।
पुर्वी उड़ीसा का एक तटीय शहर है। आप जानते ही है चार धावों में से एक भगवान जगन्नाथ का धाम यहाँ पर स्थित है। यहाँ मठों की उल्लेखनीय परंपरा रही है। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने गोवर्धन पीठ की स्थापना की। रामानुजाचार्य इस समय रामानज मठ और इमर्रा मठ बने। गुरु नानक।
और तुलसीदास जैसे महापर्व की पुरी आए और अपने केंद्र यहाँ पर उन्होंने स्थापित किए। इन सब के बावजूद भगवान जगन्नाथ और उनकी रथयात्रा पूरी की पहचान के साथ है। यहाँ भाई बल भद्र और बहन सुभद्रा के साथ भगवान लकड़ी की प्रतिमा में जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं। गोल मटोल बड़ी बड़ी आँखें, पहनावे में ओडीसा की संस्कृति की झलक दिखाई पड़ती है कबीलाई परंपरा का पूजा पाठ, रथ यात्रा जैसे त्यौहार इस मंदिर के इतिहास में अहम भूमिका निभाते आए है। जगन्नाथ मंदिर के 800 वर्षों के अतीत में ऐसा बहुत कुछ है जिससे इतिहास।
शिवदंतियां रिवाज और रहस्य मिलकर बनाते आए है भगवान जगन्नाथ कई आस्थाओं को समेट हुए कुर्के जैसे है, पौराणिक समय से शुरू करते है 18 पुराणों में से ही इस गंद पुराण में नील माधव की कथा में इस मंदिर के बनने का विस्तृत उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार राजा इन्द्र ने मंदिर का निर्माण करवाया था। वहीं ब्रह्मपुराण और नारदपुराण में भी बलवद्ध, सुभद्रा और जगन्नाथ की चर्चाएं मिलती हैं। कहते हैं की ब्रह्मा और विष्णु ने मिलकर इन्हें रचा था। इस जगह को पुरुषोत्तम क्षेत्र भी कहा जाता है। महाभारत के वन पर्व में पुरुषोत्तम क्षेत्र को एक यज्ञ वेदी के रूप में दिखाया है। रामायण का उत्तरकाण्ड में भी जगन्नाथ को के कुल देवता के रूप में प्रस्तुत करता है।
आप बात इतिहास के पन्नो से।
जगन्नाथ मंदिर का निर्माण बारहवीं सदी में आनंदवर्मन चोणगंग देव के शासन में हुआ है। जैसा कि केन्दूपट्टन कॉपर प्लेट से पता चलता है। आनंदवर्मन कलिंग के गंग राज्य के संस्थापक थे। इसकी तस्दीक राज़ राज़ तृतीय के दसगोबा प्लेट और गुमेश्वर मंदिर शिलालेख से होती है।
आनंद ने मंदिर का काम शुरू कराया। इसके बाद अनंत भीमदेव द्वितीय ने बारहवीं सली के आखिरी दशक में इसका काम पूरा कराया। फिर राजा आनंद भीमदेव तृतीय गद्दी पर बैठे। उन्होंने भगवान जगन्नाथ की सेवा के लिए करीब तीन दर्जन किस्म के सेवकों को पुरी में मसाया इन सेवकों में राजगुरु
पुरोहित, महाजन कुंटिया, पाड़ी, आरी और देवता पति जैसे सेवक शामिल थे। देवदासी परंपरा के विचार साक्ष्य मिलते है देवदासियों को भगवान जगन्नाथ की पत्नी माना जाता था और वो संगीत और नृत्य से जुड़ी होने के साथ साथ अच्छा जीवन व्यतीत करती थी।
मंदिर के विकास गजपति वंश के शासनकाल में भी जारी रहा जिन्होंने इसे धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों का केंद्र बनाया। मंदिर के वास्तव में इसके आकर्षण का एक जरूरी तत्व है। जगन्नाथ मंदिर कलिंग शैली में बना है जिसमे ऊचा आधार वक्रकार शिखर यानी।
मंडप यानी जगनमोहन और शामिल है वास्तु कला के मामले में ये ओडिशा में सबसे बड़ा और सबसे ऊचा मंदिर है। विस्तार करीब 4,00,00 वर्ग फिट उचाई करीब 215 फिट मंदिर के चार द्वार हैं जिनमें से हर एक का अपना अपना महत्त्व है। पूर्व मय सिंह द्वारा मुख्य प्रवेश है। दो सिंह आकृतियों से ये सुशोभित है। पश्चिम में है द्वार इस पर बाघों की आकृतिया उकेली गयी है। उत्तर में है हस्ती द्वार हाथियों की आकृतियों से ये सजाया गया है और दक्षिण में अस्व द्वार जो घोड़ो की आकृतियों से अलंकृत है, 22 फिट ऊंची। जिसे मेघनात प्राचीर कहा जाता है। 100 से ज्यादा छोटे बड़े मंदिर है। इन्हीं के बीच में विराजते है। भगवान जगन्नाथ मंदिर की दीवारें और सभी देवी देवताओं की चित्रों से सजी हुई है और अब ज़रा बचपने को याद कीजिये याद कीजिये गर्मी की छुट्टियों में नानी बुआ के घर जाना कुछ वैसे ही आषाढ़ यानी जून जुलाई के महीने में जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा भी भव्य रथों पर विराजते है और अपनी बुआ के घर।
गुंडीचा मंदिर जाते हैं रथ यात्रा जगन्नाथ मंदिर की वो सांस्कृतिक विरासत है जो अब समूचे विश्व में जानी जाती है। हर साल दुनिया भर से लाखों तीर्थयात्री और सैलानी यहाँ आते हैं। ये हिंदू धर्म से लोगों के लिए भी विशेष अवसर होता है क्योंकि जो मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते वो भी यात्रा का हिस्सा बन सकते हैं।
इस यात्रा में तीन रथ होते हैं श्री जगन्नाथ के रथ का नाम तीन रथों में सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा चक्के इसी में होते हैं। ये रथ सुदर्शन चक्र के पहिए से ढका हुआ होता है। फिर आता है बलभद्र का रथ के बनावट और पहिए भी जैसे होते हैं साकार कुछ कम होता है। पद्म ध्वज रथ में विराजती है। आम बोलचाल में से देव दलना कहते हैं, डेढ़ हफ्ते का ये कार्यक्रम आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की द्वितिया से शुरू होता है। इससे ठीक 15 दिन पहले स्नान पूर्णिमा के बाद भगवान जगन्नाथ एकांत वासी में चले जाते हैं, जिसे कहते हैं।
मान्यता ये है की इस दिन 108 घड़े पानी से स्नान करने के बाद भगवान बीमार पड़ जाते हैं। इस पखवाड़े में वो किसी को दर्शन नहीं देते। उनका औषधि उपचार जारी रहता है। इस दौरान उन्हें फुलोरी का तेल लगाया जाता है। इस दौरान मंदिर के कपाट बंद रहते हैं के बाद भगवान सवस्थ होकर भक्तों को दर्शन देते हैं, जिसे नवजुबाना कहते हैं। इसके ठीक अगले दिन भगवान रथयात्रा के लिए तैयार होते है। रथयात्रा से जुड़ी एक और मान्यता सुनिए पुरी के राजा थे पुरुषोत्तम देव दर्शन में काकी के राजा की एक बिटिया थी पद्मावती पुरुषोत्तम देव पद्मावती से शादी करना चाहते थे।
लेकिन के राजा ने इस रिश्ते से ये कहते हुए इंकार कर दिया कि पुरी के राजा रथों के सामने झाड़ू से रास्ता साफ करते हैं। क्रोधित होकर पुरुषोत्तम देव ने युद्ध छेड़ दिया। पुरुषोत्तम जीते और पद्मावती के साथ लौटे। आज भी पुरी के नामित राजा रथ यात्रा में सोने की झाड़ू आगे आगे आते हैं।
क्या राजा, क्या कबीले? जगन्नाथ के सामने सब एक समान नजर आते हैं। मंदिर का संबंध आदिवासी परंपराओं से भी विशेष रूप से जुड़ता है। मंदिर के सेवक दाता पतियों का दावा है की वो खुद आदिवासी हैं। मंदिर के कई भी जनजातियों के विश्वास से प्रभावित हैं। दीना कृष्ण जोशी के लेख लॉर्ड जगन्नाथ
से ऐसे तमाम किस्से सामने आते हैं। जगन्नाथ को नीला माता के रूप में सावार के कबीले के राजा विस्वा वसु पूजते थे। मंदिर के पुजारी भी आदिवासी समुदाय से आते हैं। तीनों मूर्तियां भी लकड़ी ही बनी हुई है और यहाँ की प्रसादम परंपरा में भी सबको एक समान दर्जा दिया जाता है।