अमेरिका हर लड़ाई में पार्टी क्यों बन जाता है?

हर लड़ाई में अमेरिका पार्टी क्यों बन जाता है?

हर लड़ाई में अमेरिका पार्टी क्यों बन जाता है? युद्ध होने से अमेरिका को क्या फायदा या नुकसान होता है? कौन हैं वे लोग जो इन युद्धों से खूब पैसा बनाते हैं?

ओह नो, मैट्रिक्स नाम की एक वेबसाइट है। डेटा से जुड़े इंटरेस्टिंग फैक्ट्स बताती है। इसके मुताबिक, 239 सालों में करीबन 222 साल अमेरिका किसी न किसी तरह से दुनिया में चल रहे किसी न किसी युद्ध से जुड़ा रहा है। अगर बीते सात दशकों की बात करें, तो कोई भी बड़ा अंतरराष्ट्रीय संघर्ष ऐसा नहीं रहा जिसमें अमेरिका ने किसी न किसी रूप में हिस्सेदारी न की हो। चाहे वह कोरिया और वियतनाम का युद्ध हो या अफ़गानिस्तान, इराक, सीरिया, यूक्रेन और अब ईरान। इनमें से अधिकतर युद्ध सीधे तौर पर America की ज़मीन से शुरू नहीं हुए थे, फिर भी अमेरिका ने खुद को इनमें एक अहम पार्टी बना लिया। इसका कारण केवल नैतिक ज़िम्मेदारी या लोकतंत्र की रक्षा का दावा नहीं है, बल्कि गहराई से देखिए तो यह जियोपॉलिटिकल इन्फ्लुएंस, वैश्विक वर्चस्व बनाए रखने की होड़ और एक बेहद संगठित हथियार कारोबार का सीधा रिश्ता है।  थ्रू योकर टू, के ब्रोकन ओवर। गुडवार के दौरान में America की यह भूमिका स्पष्ट थी। जहाँ भी सोवियत प्रभाव दिखा, वहाँ अमेरिकन इंटरफेयर किया।

यही वजह थी कि कोरिया से लेकर वियतनाम और फिर मध्य पूर्व तक अमेरिका की मौजूदगी बढ़ती गई। आज भी अमेरिका के दुनिया भर में 800 से ज़्यादा सैनिक ठिकाने हैं जो उसके इस निरंतर प्रभाव और वर्ल्ड पुलिस बनने की भूमिका की गवाही देते हैं। इसे और गहराई में समझते हैं। सबसे पहले बात करते हैं वियतनाम युद्ध की। 1955 से 1975 तक चलने वाली इस लड़ाई में America ने लड़ाई लडी। जबकि लड़ाई वियतनाम के दो हिस्सों नॉर्थ और साउथ के बीच थी। नॉर्थ का हिस्सा कम्युनिस्ट ताकतों के समर्थन से लड़ रहा था और साउथ का अमेरिका समर्थित था। अमेरिका को डर था कि अगर नॉर्थ वियतनाम जीत गया, तो बाक़ी एशियाई देश भी कम्युनिस्ट हो जाएँगे। अमेरिका डोमिनो थ्योरी लगा रहा था। क्या है डोमिनो थ्योरी?

उदाहरण से समझिए कि ताश के पत्तों के महल का एक पत्ता खिसका, तो सभी पत्ते धड़धड़ाकर गिरने लगेंगे। वही डोमिनो इफ़ेक्ट वाला। अमेरिका की विदेश नीति के संदर्भ में इसका मतलब अलग है। अगर कोई गैर कम्युनिस्ट स्टेट कम्युनिज्म अपना ले, तो उसके पड़ोसी गैर कम्युनिस्ट मुल्कों में भी कम्युनिज्म फैल जाता है। यही भीख नीति लेकर अमेरिका आगे बढ़ा। फिर क्या हुआ? यूएस नेशनल आर्किव के पेंटागन पेपर्स के मुताबिक़, इस युद्ध में अमेरिका ने अपने 58,000 से ज़्यादा सैनिक खोए और बाद में उसे पीछे हटना पड़ा। अगला उदाहरण इराक युद्ध का लेते हैं। 2003 में America ने कहा कि सद्दाम हुसैन के पास वेपन ऑफ़ मास डिस्ट्रक्शन है। लेकिन यूएन टीम की जाँच और बाद में खुद अमेरिका की रिपोर्ट से पता चला कि ऐसा कुछ था ही नहीं। फिर भी युद्ध हुआ क्योंकि इराक तेल से भरा था। फिर भी युद्ध हुआ ।

2003 में अमेरिका ने कहा

क्योंकि मिडिल ईस्ट में अमेरिका की सैन्य मौजूदगी मजबूत हो सकती थी। ब्रिटेन की चिलको रिपोर्ट के मुताबिक़ इन युद्धों में लाखों नागरिकों की मौत हुई और बाद में इराक में एक ऐसा पॉलिटिकल वैक्यूम क्रिएट हुआ जिससे इस्लामिक चरमपंथी आतंकवादी संगठनों का गढ़ बन गया और फिर वहाँ आईएसआईएस का जन्म हुआ। 2001 में अमेरिका ने अफ़गानिस्तान पर हमला किया क्योंकि 9/11 के लिए अमेरिका ने अल-कायदा को ज़िम्मेदार ठहराया, जिसे तालिबान ने पनाह दी थी। ब्राउन यूनिवर्सिटी, कॉस्ट्स ऑफ़ वॉर प्रोजेक्ट की रिपोर्ट बताती है कि शुरुआत में लड़ाई आतंकवाद से थी, लेकिन फिर वह लड़ाई अफ़गान सरकार के निर्माण, तालिबान से शांति वार्ता और पाक-अफ़गान सीमा तक ड्रोन हमलों तक खिंच गई थी। दो दशक बाद America वापस गया और तालिबान फिर से सत्ता में आ गया। सीरिया एक और उदाहरण है। अमेरिका असद सरकार के ख़िलाफ़ था,

लेकिन आईएसआईएस के भी ख़िलाफ़। मतलब दो विरोधियों से एक साथ लड़ना था। अमेरिका ने विद्रोही गुटों को समर्थन दिया, फिर खुद ही ड्रोन हमले भी किए। एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स रिपोर्ट बताती है कि यमन में अमेरिका ने प्रत्यक्ष युद्ध नहीं लड़ा, लेकिन सऊदी अरब को हथियार, खुफिया जानकारी और डिप्लोमेटिक समर्थन दिया जबकि सऊदी वहाँ बमबारी कर रहा था। इसके पीछे का मक़सद यह था कि ईरान को घेरना है और सऊदी से अरबों डॉलर की रक्षा सौदे बनाए रखना है। यूक्रेन युद्ध में भी अमेरिका सीधे नहीं लड़ रहा है, लेकिन सेप्रि की वाइट हाउस यूक्रेन ऐट रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका यूक्रेन को अब तक 60 अरब डॉलर यानी करीब ₹5 लाख करोड़ से ज़्यादा की सहायता भेज चुका है, हथियारों से लेकर आर्थिक मदद तक। क्योंकि अमेरिका नहीं चाहता कि रूस पश्चिमी यूरोप की सीमाओं तक पहुँचे। साथी, नाटो के समर्थन और रूस-चीन के ख़िलाफ़ शक्ति संतुलन बनाए रखना उसका बड़ा उद्देश्य है। 2025 में जब इंडिया और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ा, America फिर से बीच में कूद पड़ा। एक तरफ़ शांति की बातें, दूसरी तरफ़ पाकिस्तान को F-16 सपोर्ट रोकने की धमकी और भारत को ड्रोन बेचने की तैयारी। यानी लड़ाई किसी की भी हो,

लेकिन दुकान अमेरिका की ही चलती है। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में भी विदेश नीति एक अहम मुद्दा होती है। 2004 में जॉर्ज डब्लू बुश ने इराक़ युद्ध को देशभक्ति से जोड़कर चुनाव जीता। 2024 में बाइडेन को इजराइल का समर्थन इसलिए भी करना पड़ा, क्योंकि America यहूदी लॉबी के वोटर्स का उन पर दबाव था। यानी जंग में पार्टी बनना केवल विदेश नीति से जुड़ा फैसला नहीं था, बल्कि लोकल वोट बैंक मैनेजमेंट भी है। चुनाव जीतने में इसका रेलेवन्स है। तो अब जवाब साफ है, अमेरिका हर उस जगह हस्तक्षेप करता है, जहां उसे आर्थिक या राजनीतिक फायदा दिखता है, लेकिन इस हितों की रक्षा के पीछे एक और बड़ा पहलू है, हथियारों का कारोबार। अमेरिका हर साल सैकड़ों अरब डॉलर से ज्यादा के हथियार निर्यात करता है और ये आंकड़ा हर युद्ध के साथ और तेजी से बढ़ता है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान अमेरिका ने ना केवल सैन्य मदद के नाम पर अरबों डॉलर भेजे, बल्कि यूरोप पर में अपने हथियारों की भारी डिमांड भी खड़ी कर दी। अमेरिकी रक्षा कंपनियां जैसे लॉकहिड मार्टिन, रेथियॉन, जनरल डायनेमिक्स और बोइंग, हर युद्ध में बड़े सरकारी ठेके हासिल करती हैं। युद्ध जितना लंबा चले, इन कंपनियों के मुनाफे उतने ही बढ़ते हैं। ये Amirca मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स है, जिसकी चेतावनी खुद राष्ट्रपति आइजनहावर ने 1961 में दी थी।

निर्बल और सबल के बीच अमेरिका का कार्निवल चलता है। जब भी कहीं दुनिया में युद्ध छिड़ता है, तो अमेरिका के हथियार कंपनियों के शेयर चढ़ने लगते हैं। असल में, अमेरिका सिर्फ युद्ध में नहीं उतरता, वो युद्ध को एक बिजनेस मॉडल की तरह समझता और बरतता है। America का हथियार व्यवसाय असल में दुनिया का सबसे बड़ा जोखिम वाला बाजार है। हर युद्ध मुनाफे का नया मौका है। बाद में आयरनी है और बाद में अमेरिका का राष्ट्रीय प्रतीक। मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स के जरिए खुद समूह मलाई काटते हैं। ये कैसा कॉम्प्लेक्स है? ऐसा कि जहां सरकार, सेना और रक्षा उद्योग आपस में गहराई से जुड़े होते हैं। हिसाब साफ होता है। बढ़िया बंदरबांट होगा। युद्ध और सेना पर खर्चे होंगे, जिससे एक ग्रुप को आर्थिक के साथ राजनीतिक लाभ भी मिलेगा। इनमें हथियार बनाने वाली कंपनियां और राजनेता शामिल हैं। ये ग्रुप सरकार से बड़े ठेके हासिल करती हैं, जो उनको मुनाफा देते हैं। जबकि आम अमेरिकी नागरिक टैक्स देकर इन खर्चों का बोझ उठाता रहता है। डिफेंस इंडस्ट्री की कंपनियां लॉबिंग करती हैं, सांसदों को चंदा देती हैं और पेंटागन के अधिकारियों को महंगे उपहार देती हैं, ताकि मुंह के कील मिल सके। रक्षा खर्च से लाभ कुछ ही लोगों को होता है,

जैसे ठेकेदार, उनके कर्मचारी, लेकिन लागत सभी करदाताओं पर बढ़ जाती है। इसका मतलब ये है कि ठेकेदारों के पास अपने फायदे की योजना को पुश करने की ताकत होती है। इसमें प्रॉफिट उनको सीधे मिलता है। उदाहरण के लिए, सिनेटर बर्नी सैंडर्स ने F35 लड़ाकू विमान की योजना का समर्थन किया, क्योंकि इससे उनके घरेलू राज्य वर्मोंट में नौकरियां पैदा होंगी। मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स का एक और पहलू है, ये अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देता है। डिफेंस पॉलिसी नौकरियां पैदा करती है और अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाती है। इसलिए नेता और ठेकेदार युद्ध का समर्थन करते हैं। हालांकि, योजनाएं जरूरत से ज्यादा खर्च करती हैं और लॉन्गर रन में नुकसान भी पहुंचाती हैं।

सिप्री की ताजा रिपोर्ट 2020-24 के अनुसार, अमेरिका ने वैश्विक बड़े हथियार निर्यात में 43% हिस्सेदारी हासिल की और ये 2015 से 2019 की तुलना में 21% की बढ़ोतरी है। मतलब हर चार हथियार में लगभग दो हथियार का अधिकार रहा है। इराक़ युद्ध 2003 के दौरान रेथियॉन, लॉकहिड मार्टिन जैसे डिफेंस ठेकेदारों को अरबों डॉलर के कॉन्ट्रैक्ट मिले। अफगानिस्तान में 20 साल तक America मौजूद रहा और ब्राउन यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट के मुताबिक, इस पूरे मिशन में अमेरिका ने करीब 2 ट्रिलियन डॉलर झोंक दिए, जिसमें बड़ा हिस्सा हथियारों और सैन्य कॉन्ट्रैक्ट पर गया। यूक्रेन युद्ध की बात करें, तो सिर्फ दो सालों में अमेरिका ने 75 अरब डॉलर से ज्यादा की मदद की, जिसमें से ज्यादातर हथियारों और गोला बारूद के

खोलने की तारों के पीछे की कंपनियां वही थीं, जिनके शेयर हर धमाके के साथ ऊपर चढ़ते हैं। अक्टूबर 2004 की बिजनेस एंड ह्यूमन राइट सेंटर की एक रिपोर्ट बताती है कि उस वक्त लॉकहीड मार्टिन के मुनाफे में 41% की वृद्धि हुई थी। यह बात सिर्फ इत्तेफाक नहीं है कि हर बड़े युद्ध में अमेरिका की मौजूदगी होती है; असल में, यह रणनीति का हिस्सा है। एक ऐसा कॉर्पोरेट युद्ध तंत्र जो डर बेचता है और बदले में मिसाइलें, हथियार बनाता है, अमेरिका की व्यवस्था का बहुत अहम हिस्सा है। 2023 में, सिर्फ लॉकहीड मार्टिन ने लगभग 67 बिलियन डॉलर, यानि 600,000 करोड़ रुपये की बिक्री की। अकेले इसका मतलब है कि अमेरिका के पास युद्ध दरअसल नैतिक सवाल है, उसके लिए बल्कि इकोनॉमिक मोटिवेशन भी है।

एक और कारण यह है कि अमेरिका पावर वैक्यूम नहीं क्रिएट होने देना चाहता। पावर वैक्यूम का सिद्धांत कहता है कि अगर ताकतवर देश पीछे हटता है, तो कोई उसकी जगह ले लेता है। उदाहरण के लिए, जब 2011 में अमेरिका ने इराक से सेना हटाई थी, तो वहां पर आईएसआईएस जैसे संगठन उभर आए। इसलिए अमेरिका हर टेंशन ज़ोन में खुद को लीडर बनाए रखना चाहता है ताकि रशिया या चाइना जैसे देश उस जगह को भर न दें। और अब जब भी आप सुनें कि अमेरिका ने फिर से बयान दे दिया, वह फिर से टैंक भेज रहा है, या उसने सीज़ फायर की मांग कर दी है, तो समझ जाइए वह सिर्फ शांति नहीं ला रहा,

वह अपनी मौजूदगी को जिंदा रख रहा है क्योंकि जंग में सिर्फ बम नहीं चलते, बैलेंस ऑफ पावर से चलता है।

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